Tuesday, January 10, 2012

शमए-उम्मीदे -वस्ल जलती रही

जाने कितनी शामें हिज़्र में ढलती  रही | 
पर इक शमए-उम्मीदे -वस्ल जलती रही ||

चाहे पा न सके हम कोशिशो  के बाद भी ,
दिल में उनको पाने की मंशा पलती रही ||
 

वक्ते-हनोज़ कटा है जो फुरकते -यार में,
उसमें हमारी रूह तर्हे-मोम पिघलती रही ||
 

छोड़ा ना दिल हमने मुश्किलाते- हियात में ,
कुछ-बादे वक्त इक -इक  होके  टलती रही ||
 

आगाज़े-शिकस्ते-कीमते-दिल जब हुई ,
तो भी अपने दिल की कीमते बढती रही ||
 

माहिर थे  हम फने-दिलसितानी में पर,
उनको न पाने में हमसे  कहाँ गलती रही||
 

खाना-जादे-ज़ुल्फ़ हुए "नज़ील" हम उनके ,
जीना बेहाल हुआ पर साँसे चलती रही ||



7 comments:

  1. बहुत अच्छी प्रस्तुति

    Gyan Darpan
    ..

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    1. धन्यवाद रतन सिंह शेखावत जी आपका हार्दिक आभार ...:)

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  2. आपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
    कृपया पधारें
    चर्चा मंच-756:चर्चाकार-दिलबाग विर्क

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    1. धन्यवाद दिलबाग जी आपका हार्दिक आभार ...:)

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  3. Replies
    1. धन्यवाद सुरेन्दर सिंह जी आपका हार्दिक आभार ...:)

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